बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-3 इतिहास बीए सेमेस्टर-3 इतिहाससरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-3 इतिहास
प्रश्न- क्या राजा राममोहन राय को 'आधुनिक भारत का पिता' कहना उचित है?
अथवा
'आधुनिक भारत के पिता राजा राममोहन राय पर एक टिप्पणी लिखिए।
उत्तर -
राजा राममोहन राय (1772-1833 ई.)
राजा राममोहन राय ही पहले भारतीय थे जिन्होंने भारतीय समाज को मध्ययुगीन जकड़न से मुक्त कराने का प्रयास किया। इन्होंने नव विचारों की पहल की। उन्होंने उन नवीन विचारों का प्रवर्तन किया, जो 19वीं सदी की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता थी और जिन्होंने भारतीय पुनर्जागरण को जन्म दिया। वह वास्तव में "अतीत और भविष्य के मध्य सेतु" थे। राजा राममोहन राय और महात्मा गांधी आधुनिक भारत के दो छोरों के प्रतीक हैं। राममोहन राय को जहाँ "आधुनिक भारत का पिता" के रूप में अभिनन्दित किया जाता है वहीं महात्मा गाँधी को राष्ट्रपिता के रूप में माना जाता है।
राजा राममोहन राय का जन्म 22 मई, 1772 को ग्राम राधानगर, जिला हुगली बंगाल के एक रूढ़िवादी ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता रमाकान्त राय राय रायाँ' कृष्णचन्द्र बनर्जी के पौत्र थे। इन्होंने बंगाल के नवाब के यहाँ नौकरी कर ली थी और उन्हें 'राय रायाँ की उपाधि मिली। यही उपाधि बाद में संकुचित होकर राय के रूप में परिवार की उपाधि का उपनाम बन गई। वह अरबी, फारसी, संस्कृत, अंग्रेजी तथा बंगाली के प्रकाण्ड विद्वान थे, साथ ही यूनानी, लैटिन तथा हेब्रू जैसी विदेशी भाषाओं के भी ज्ञाता थे। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा पटना तथा वाराणसी में हुई। 1803 से 1814 तक इन्होंने ( दस वर्षों तक ) ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अधीन कार्य किया। इस दौरान इन्होंने अपना अध्ययन जारी रखा। इनकी साहित्यिक कृतियों में 1803 में प्रकाशित एक फारसी ग्रंथ 'तुहफात-उल-मुवादिदीन' ( एकेश्वरवादियों को उपहार), विभिन्न धर्मों पर फारसी में परिचर्चा मंजार्तुल अदयान, फारसी में लिखित बहुत से छोटे-छोटे ग्रंथ वेदान्त और केन उपनिषद् के कुछ भागों का अनुवाद तथा वेदान्त सूत्र का अंग्रेजी में अनुवाद आदि उल्लेखनीय हैं। उनकी प्रस्तावना थी कि वेदान्त में ईश्वरवादी सिद्धान्त मूर्तिपूजा से अदूषित अपने शुद्ध रूप में मिलते हैं। राममोहन राय ईसाई धर्म प्रचारकों के सम्पर्क में भी आए। 1820 में उनकी पुस्तक 'ईसा के नीति वचन शाँति और खुशहाली का मार्ग का प्रकाशन हुआ। इसमें ईसाई धर्म की सहजता और नैतिकता के बारे में उनके दृढ़ विश्वास का उल्लेख मिलता है। 1811 में उनके बड़े भाई की पत्नी द्वारा सती हो जाने से उनके जीवन में संक्रमण ने जन्म लिया। इस घटना ने राजा राममोहन राय को असीम पश्चाताप और करुणा से भर दिया और उन्होंने इस अमानवीय प्रथा को समाप्त करने के लिए दृढ़ निश्चय कर लिया।
एक समाज सुधारक के रूप में राजा राममोहन राय हिन्दू समाज को सभी रूढ़ियों और कुरीतियों से मुक्त कराना चाहते थे। वे भारतीय स्त्रियों की मुक्ति के प्रबल समर्थक थे। 1822 में उनकी हिन्दू उत्तराधिकार नियम के अनुसार महिलाओं के प्राचीन अधिकारों पर आधुनिक अतिक्रमण नामक पुस्तिका का प्रकाशन हुआ। इस पुस्तिका में प्राचीन स्मृति लेखों का प्रमाण देते हुए उन्होंने स्त्रियों के साथ होने वाले सभी प्रकार के भेदभाव और कुरीतियों का विरोध किया। उन्होंने बहु विवाह, कुलीनवाद तथा सती प्रथा का विरोध किया और स्त्रियों को सम्पत्ति का उत्तराधिकारी बनाने का समर्थन किया। उन्होंने भारतीयों की दशा को सुधारने के लिए ब्रिटिश सरकार से निवेदन किया तथा सती प्रथा का उन्मूलन करने के लिए ब्रिटिश सरकार से कानून बनाने के लिए आंदोलन किया। उनके सतत् प्रयासों का ही परिणाम था कि गवर्नर जनरल लार्ड विलियम बैंटिक ने 4 सितम्बर, 1829 को अधिनियम XVII पारित करके सती कर्म को गैर-कानूनी तथा फौजदारी अपराध की कोटि में रखते हुए दण्डनीय घोषित कर दिया। इस अधिनियम से सामाजिक विधान के द्वारा समाज सुधार की प्रक्रिया प्रारम्भ हुई।
राजा राममोहन राय बाल विवाह तथा जाति प्रथा की कट्टरता के विरुद्ध एक कठोर धर्म-योद्धा भी थे जिसे उन्होंने अलोकतांत्रिक और अमानवीय कहते हुए वर्णित किया है। वे विधवाओं के पुनर्विवाह की स्वतन्त्रता तथा स्त्री-पुरुषों के समान अधिकारों के पक्षधर थे।
ब्रह्म समाज और धर्म-सुधार कार्य - राजा राममोहन राय धर्म के प्रति बौद्धिक दृष्टिकोण अपनाने के पक्षधर थे। इस्लाम के एकेश्वरवाद तथा मूर्ति-पूजा विरोध, सूफीमत, ईसाई धर्म, नैतिक शिक्षाओं, पश्चिम के उत्तराधिकारवादी तथा बौद्धिक सिद्धान्तों का उन पर गहन प्रभाव पड़ा। उन्होंने मूर्ति-पूजा पर अमानवीय होने का आरोप लगाया तथा सभी धर्मों तथा मानवता के लिए एक ही ईश्वर के मत का प्रतिपादन किया।
हिन्दू धर्म के एकेश्वरवादी मत का प्रचार करने के लिए उन्होंने आत्मीय सभा ( 1815-19 ई.) की स्थापना की। 1828 में उन्होंने ब्रह्म सभा की स्थापना की, जो बाद में ब्रह्म समाज के रूप में प्रचलित हुआ। इस नवीन पंथ में सामाजिक रीति-रिवाजों एवं धार्मिक कर्मकाण्डों के लिए कोई स्थान नहीं था। एकेश्वरवादियों का 'समाज' था। समाज के सिद्धान्तों को न्यास के दस्तावेजों तथा तत्कालीन प्रकाशित पुस्तिका में परिभाषित किया गया। ब्रह्मसमाज का विश्वास था कि जो कुछ भी दृश्यमान जगत में अस्तित्ववान है, उस सबका कारण तथा प्रेरणास्रोत ईश्वर है। इसी प्रकार प्रकृति पृथ्वी और स्वर्ग- सभी उस ईश्वर की ही सृष्टि हैं। इनके यहाँ ईश्वर की अवधारणा में अवतार तथा ध्यान जैसे विचारों के लिए कोई स्थान नहीं है। वह ईश्वर तथा जीव (मनुष्य) के बीच किसी मध्यस्थ (पुजारी) की सत्ता स्वीकार नहीं करते थे। ब्रह्म समाज में न तो बलि चढ़ाने की अनुमति थी, न मूर्ति पूजा का समर्थन किया गया। ब्रह्म धर्म ने रंग, वर्ण अथवा मत पर विचार किए बिना मानवमात्र के प्रति प्रेम तथा जीवन की उच्चतम विधि के रूप में मानवता की सेवा पर बल दिया।
एक देशभक्त के रूप में राजा राममोहन राय एक उच्चकोटि के देशभक्त थे। उनके राजनीतिक विचार काफी प्रगतिशील थे। वे भारत में भारतीयों के हित में अंग्रेजी शासन के समर्थक थे। उन्होंने सामाजिक सुधार के प्रगतिशील उपायों के शुभारम्भ करने तथा आधुनिक शैक्षिक संस्थाओं की स्थापना के लिए ब्रिटिश शासन की प्रशंसा की। फिर भी प्रेस की स्वतन्त्रता पर प्रतिबन्ध लगाने के विरुद्ध, विरोधी आन्दोलन भी चलाया। वे भारत में कम्पनी के व्यापारिक अधिकार का अंत करना चाहते थे। इसीलिए उन्होने 'संवाद कौमुदी' और 'मिशन-उल-अखबार का संपादन कर जनमत संगठित करने की चेष्टा की। उन्होंने भारतीयों को उच्च पदों से वंचित रखने के लिए सरकार की आलोचना की।
शैक्षणिक विकास में योगदान - शिक्षा के क्षेत्र में उनके विचार बड़े क्रांतिकारी थे। प्राचीन भाषाओं के ज्ञाता होते हुए भी उनका विचार था कि भारत की प्रगति केवल उदार शिक्षा द्वारा ही हो सकती है। राजा राममोहन राय पाश्चात्य शिक्षा के भी बड़े समर्थक थे। वह शिक्षा की संस्कृत प्रणाली के विरोधी थे क्योंकि, "इससे देश कूप- मण्डूक बनेगा " यह उनका मानना था। उन्होंने हिन्दू कालेज, कलकत्ता की स्थापना के लिए भी महान योगदान किया।
अंतर्राष्ट्रीयता के समर्थक - राजा राम मोहन राय में केवल राष्ट्रीय भावना ही नहीं थी, वरन् वे एक अंतर्राष्ट्रीय शुभचिंतक भी थे। अंतर्राष्ट्रीय विवादों को शांतिपूर्ण ढंग से सुलझाने के लिए उन्होंने सुझाव दिया था। उन्होंने कहा कि अन्तर्राष्ट्रीय विवादों से संबद्ध देशों की संसदों से एक-एक सदस्य लेकर एक अंतर्राष्ट्रीय संसद का निर्माण किया जाय।
प्रेस के क्षेत्र में - राजा राममोहन राय ने अपने विचारों को प्रेस के माध्यम से प्रचारित एवं प्रसारित किया। दिसम्बर 1821 में उन्होंने बंगला साप्ताहिक 'शब्द कौमुदी' अथवा 'प्रज्ञा का चाँद का प्रकाशन प्रारम्भ किया। भारतीयों द्वारा सम्पादित, प्रकाशित तथा संचालित यह प्रथम भारतीय समाचार पत्र था। इसके एक वर्ष पश्चात् इन्होंने फारसी भाषा में एक अन्य साप्ताहिक समाचार पत्र मीरात उल अखबार। या 'बुद्धि-दर्पण' का प्रकाशन प्रारम्भ किया। इन समाचार पत्रों के माध्यम से आपने अपने राजनीतिक एवं सामाजिक विचारों का प्रसारण किया।
न्याय-व्यवस्था के सुधारक के रूप में - राजा राममोहन राय न्याय व्यवस्था में भी सुधार चाहते थे। भारत में ब्रिटिश सरकार द्वारा स्थापित न्याय व्यवस्था के अन्तर्गत न तो भारतवासियों को सही न्याय मिल सकता था और न यहाँ न्यायपालिका कार्यपालिका से स्वतन्त्र थी। राजा राममोहन राय ने इसके विरुद्ध आवाज उठाई और सरकार के समक्ष अनेक प्रस्ताव रखे कि
1 न्यायालयों में जूरी प्रथा लागू की जाए.
2. न्यायाधीश तथा मजिस्ट्रेट के पद पृथक् किए जाएं
3. कंपनी की नागरिक सेवा में भारतीय नागरिकों की अधिक-से-अधिक संख्या में नियुक्ति की जाए और
4 विधि-निर्माण के लिए भारतीय जनमत की सहमति व सहयोग लिया जाए।
निष्कर्ष रूप में यह कह सकते हैं कि राजाराम मोहन राय सभी दृष्टियों से एक महान व्यक्ति थे। रूढ़िग्रस्त भारतीय जनता को अज्ञान के अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाले भारतीय सुधार आंदोलन के वे महान अग्रदूत थे और आधुनिक भारत के जनक थे। ब्रह्म समाज के माध्यम से उन्होंने सामाजिक और धार्मिक बुराइयों को दूर करने का प्रयास किया। श्रीमती एनी बेसेंट ने राजाराम मोहन राय के संबंध में लिखा है कि, "राजा राममोहन राय में एक अद्भुत शक्ति, लगन और दृढ़ता थी। उन्होंने साहसपूर्ण हिन्दू कट्टरपंथी सीमा को तोड़ने का प्रयत्न किया और स्वतंत्रता का बीज बोया, जिसने पुष्पित, पल्लवित और फलित होकर राष्ट्र के जन-जीवन को नई चेतना से अनुप्राणित किया। मेकनिकोल के अनुसार, "राजा राममोहन राय एक नए युग के प्रवर्तक थे और उन्होंने जो ज्योति जलाई वह आज भी अनवरत जल रही है।" राजा राममोहन राय की लोकप्रियता को दर्शाते हुए सर ब्रजेन्द्र सील ने लिखा है कि, "राजाराम मोहन राय व्यापक मानवता के जनक थे। वे सच्चे और विशुद्ध मानवतावादी थे और उनकी नजर के सामने विश्व मानवता का चित्र नाचता रहता था। 1833 में इंग्लैण्ड में राजा राममोहन राय की असामयिक मृत्यु से ब्रह्म समाज की स्थिति बिगड़ने लगी, लेकिन 1834 में महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर और 1862 में केशवचन्द्र सेन के नेतृत्व में ब्रह्मसमाज में पुनः चेतना का संचार हुआ और राजाराम मोहन राय के कार्यों को आगे बढ़ाया गया।
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- प्रश्न- भारत में 19वीं सदी में हुए विभिन्न सुधारवादी आन्दोलनों का संक्षिप्त विवरण दीजिए।
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- प्रश्न- दाण्डी यात्रा का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत कीजिए।
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